कौन सुनेगा इनकी आवाज? मासूम बच्चों संग ट्रायसायकल में भीख मांग रही कमार जनजाति की महिला, मजबूरी में तालाब किनारे बसा ली झोपड़ी— खबर पढ़कर जानिए इंसाफ की उम्मीद में भटक रही एक बेबस मां की कहानी……

गरियाबंद: (प्रांशु क्षत्रिय) गर्मी की तपती दोपहरी हो या बारिश की झाड़ी—गरियाबंद की सड़कों पर ट्रायसायकल में अपने मासूम बच्चों के साथ भीख मांगती एक महिला रोजाना दिख जाती है। लेकिन इस तस्वीर के पीछे छिपा दर्द शायद ही किसी ने जानने की कोशिश की हो। 32 वर्षीय यह महिला विशिष्ट पिछड़ी जनजाति ‘कमार’ समुदाय से है, जो आज अपनी जिंदगी और बच्चों के भविष्य के लिए जूझ रही है। कुछ महीने पहले तक वह गोडलबाय गांव में मजदूरी कर परिवार पालती थी। लेकिन एक हादसे ने उसकी दोनों टांगें और एक कलाई तोड़ दी। इलाज अधूरा रह गया और अब वो चलने-फिरने के काबिल नहीं रही। पति बेरोजगार है, जिम्मेदारी का नाम तक नहीं लेता। मजबूरी में प्रशासन ने एक ट्रायसायकल दे दी, जिसमें बैठकर वह भीख मांगती है और उसके दो बच्चे ट्रायसायकल को धक्का लगाते हैं। 8 साल की बेटी प्रतिभा और 6 साल का बेटा प्रदीप भीख मांगने मां के साथ जाते हैं, जबकि 3 साल का संदीप और पति देवलाल कमार तालाब किनारे फटे पॉलीथिन से बनी झोपड़ी में रहते हैं। महिला ने बताया कि जन-मन योजना के तहत मिला आवास भी अब अधूरा खंडहर बन चुका है। क्योंकि जब वह इलाज के बाद लौटी, तो निर्माण सामग्री गायब मिली और गांव वालों ने गाली देकर भगा दिया। अब दबंगों के डर से गांव लौटने की हिम्मत नहीं, इसलिए परिवार तालाब किनारे जिंदगी काट रहा है। आदिवासी विकास विभाग के सहायक आयुक्त नवीन भगत का कहना है कि पीड़िता को ट्रायसायकल, नगद सहायता और इलाज की सुविधा दी गई है। उसे तीन बार गांव में बसाने की कोशिश भी की गई, लेकिन हर बार वो वापस लौट आई। अब समस्या की जड़ जानकर स्थायी समाधान देने की बात कही गई है।
300-400 की भीख से पल रहा परिवार……..
पीड़िता का कहना है कि भीख से रोजाना 300 से 400 रुपये मिलते हैं, जिससे किसी तरह बच्चों का पेट भर पाती है। राशन कार्ड है, इसलिए अनाज मिल जाता है, लेकिन बच्चों की पढ़ाई, इलाज और सुरक्षित ठिकाना अब भी सपना बना हुआ है।